आलोचना का जहर
विराट हिंदू समाज को संगठित करने का कार्य जब से श्री गुरु जी ने अपने कंधों पर लिया तब से उन्होंने अपने आप को इस ढंग से डाला कि जिसके परिणाम स्वरूप वो एक महान लोक संग्रही बन सके। सरसंघचालक बनने के तुरंत बाद उन्होंने यह अनुभव किया कि दक्षिण महाराष्ट्र के कुछ स्थानों पर हिंदू समाज के कतिपय प्रमुख व्यक्ति जो उनसे पूर्व परिचित नहीं थे वे उनके प्रति अनादर व्यक्त करने वाली आलोचना किया करते हैं। इस आलोचना के कारण उन स्थानों के स्वयंसेवक स्वाभाविक ही कुछ मात्रा में उद्विग्न हो उठते थे।
इस परिस्थिति की जानकारी मिलने पर श्री गुरु जी ने अपने पुणे निवास के समय दक्षिण महाराष्ट्र के उन स्थानों के प्रमुख स्वयंसेवकों को बुला लिया और उनसे श्री गुरु जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा – मेरी जो व्यक्तिगत आलोचना की जा रही है उससे मैं अवगत हूं। किंतु इस आलोचना की प्रतिक्रिया स्वरूप आप में से किसी को भी ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए जो अपने कार्य के लिए अशोभनीय हो।
युवा स्वयंसेवकों को श्री गुरु जी की यह सलाह इतनी पसंद नहीं आई। यह देखकर श्री गुरु जी ने आगे कहा – इस संबंध में आप लोग निश्चिंत रहें। मैं स्वयं उचित ढंग से उचित समय पर इस आलोचना को निरस्त कर दूँगा। आप में से किसी ने भी मेरा पक्ष लेकर कुछ भी अन्यथा किया तो मुझे पसंद नहीं आएगा।
सदियों से विघटित हिंदू समाज के मध्य लोक संग्रह व्रत को निभाने के लिए जो कड़वा जहर भी गले के नीचे उतारना पड़ता है उसका यह ज्वलंत उदाहरण है। श्री गुरु जी ने अपना मन ऐसा बना लिया था कि अनेकों स्थानों पर समय-समय पर होने वाली भिन्न-भिन्न अभद्र एवं असत्य आलोचनाओं को सहन कर लेना अपितु उनको सहज पचा जाना उनके लिए आसान बात थी। अपने मन की ऐसी अवस्था बना लेने के लिए श्री गुरु जी को कितनी तपश्चर्या करनी पड़ी होगी इसका अनुमान लगाना कठिन है।
Author: श्री गुरुजी जीवन प्रसंग १
Source: Shri Guruji