कौन सर्प? कैसा सर्प? मैं तो आनंद में विभोर था
अनुकरणशीलता बालक की जन्मजात प्रवृत्ति होती है. अपने आसपास के लोगों का व्यवहार वह सूक्ष्म दृष्टि से देखता है. हम उसकी दृष्टि सामान्यतः जान भी नहीं पाते.जो बात उसके मन पर अंकित हो जाती है वह उसे भूल नहीं पाता है. इस व्यवहार की नकल होने लगती है अभ्यास करते करते वह नकल ही उसकी आदत बन जाती है. बालक के मन पर उन लोगों के व्यवहार व शब्द अधिक प्रभाव डाला करते हैं जो उसके निकट के स्वजन होते हैं. इसी कारण माँ बच्चे की प्रथम शिक्षिका कही गई है. मनोविज्ञान का यह सामान्य नियम है. असामान्य बालक उसके आगे बढ़कर प्रतिभा का परिचय भी देते हैं. बालक नरेंद्र के साथ भी यही बात थी. इष्ट देव की मूर्ति चाहे सीताराम की हो या विषपान करने वाले कैलासपति शंकर की परंतु नरेंद्र अपनी माँ को पूजा अर्चना करते देखकर बचपन से ही आंखें बंद करके मूर्ति के सम्मुख बैठकर भगवान की आराधना करना अवश्य सीख गया था.
किसी को क्या पता था कि वह सामान्य बालक की नकल नहीं अपितु एक असामान्य व्यक्तित्व की दिव्यता का प्रगटीकरण मात्र है.लंबे समय तक बालक आंखें बंद किए ध्यान मग्न बैठा रहता था, एकाग्रता किस सीमा तक थी कोई ना जानता था. बचपन के साथी भी खेल-खेल में उसका साथ देते थे. ध्यान कि मानो वह कक्षा ही थी. परंतु सहपाठियों के साथ वह केवल सचमुच खेल ही था.
एक दिन खाली समय में मकान के बाहर एक छायादार स्थान पर सभी सहपाठी खेल रहे थे, खेलते खेलते पूजा का खेल भी प्रारंभ हो गया, परस्पर होड़ लग गई कि देखे कौन कितना ध्यान साध सकता है.पद्मासन लगाकर सब नेत्र बंद करके जम गए. कुछ हीं क्षण बीते होंगे, उधर एक कोने से एक काला नाग निकल आया. झाड़ी की सरसराहट हुई. आवाज सुनकर एक साथी की आंख खुल गई, भयंकर नाग देखते ही उसकी चीख निकल गई! अन्य साथी भी चौंक गए, सब डर के मारे भाग खड़े हुए! शोर मच गया. सभी घबरा गये. घर के लोग भागे-भागे आए परंतु नरेंद्र ध्यानमग्न बैठा रहा. सर्प फैण उठाये नरेंद्र के सामने बैठा रहा फिर चुपचाप चला गया. माँ पुत्र को सुरक्षित देखकर आश्वस्त होकर उसके सिर पर हाथ फिरती हुई बोली, बेटा तुम्हें डर नहीं लगा तुम्हारे सब साथी भी भाग गए थे? बालोचित सरलता से नरेंद्र बोला, क्या बात हो गई थी माँ, मुझे तो कुछ भी पता नहीं है.
कौन सर्प? कैसा सर्प मैं तो आनंद विभोर था.सभी भौचक्के थे इस उत्तर को सुन कर यह तो साधु-सन्यासी भी ना कर सकते थे.
Author: राणा प्रताप सिंह
Source: स्वामी विवेकानंद प्रेरक जीवन प्रसंग Volume 1, page 11