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हमें उनकी सहायता अवश्य करनी चाहिए

हमें उनकी सहायता अवश्य करनी चाहिए. तुम्हारा हृदय भी उन्हें देखकर द्रवीभूत हो उठेगा! पिता के यह वाक्य बालक नरेंद्र के हृदय को स्पर्श कर गए, अब तो दीन-दुखी त्यागी तपस्वी के लिए उसके मन में दया का भाव उमर उठता था. व्यक्ति ही नहीं जीव जंतुओं के लिए भी उसके हृदय में आत्मीयता का भाव स्पष्ट झलकता था. बकरी पक्षी बंदर कबूतर तो उसके मित्र बन गए थे. एकांत में बैठ कर उनके साथ बातें करना खेलना कूदना दौड़ना भागना उसकी दिनचर्या के अंग ही बन गए. घर की गाय के प्रति उसके मन में विशेष लगाव होता है. उसके प्रति बालक के मन में विलक्षण आकर्षण था. गली में साधु संतों को देखकर उसके मन में आदर व श्रद्धा का भाव जाग उठता था. उनकी सेवा करना व सहायता करने की ललक उसके मन में रह रह कर उठती थी. इन्हे जिन जिन वस्तुओं की आवश्यकता होती थी बालक नरेंद्र तत्काल उन्हें दे देता था. खाद्य सामग्री वस्त्र धन जो चीज भी उसे मिलती, वह दान कर देता था, उस चीज का मोह उसे कभी ना सताता था. साधु संतों ने घर पर आकर आवाज़ लगाई “नारायण” की वह दौड़ पड़ता था. बड़े भरे-पूरे घर में पहले तो कुछ पता ना लगा, धीरे-धीरे चीजों के गायब होने से चिंता होनी प्रारंभ हो गई. एक दिन बालक नरेंद्र के पास कोई वस्तु ना थी, जाड़ों के दिन थे एक साधु आया, बालक ने दौड़कर उसकी झोली में चावल आदि ला कर डाल दिए.साधु महोदय ने विनम्र ढंग से कहा बेटे भगवान तुम्हारा भला करे ठंड के दिन हैं कोई वस्त्र दे सको तो अच्छा रहेगा. बालक का हृदय द्रवीभूत हो उठा. उसकी कमर में एक रेशमी दुपट्टा बंधा था झट खोलकर उसे दे दिया. बेटे तुम अवश्य बड़े होकर जगत का कल्याण करोगे आशीर्वाद देता हुआ वह देवपुरुष चला गया. घर में पुनः प्रवेश करने पर माँ ने पूछा, वस्त्र कहां है? बाबा जी को दे दिया, पुत्र का सरल उत्तर था. माँ सन्न रह गयी. अधिक पूछताछ करने पर गायब होने वाली चीजों का रहस्य मिल गया पुत्र की सहृदयता के कारण मां के मन में प्रसन्नता तो हुई परंतु ऊपर से प्रताड़ना दे दी गयी.

दूसरे दिन प्रातः काल ही बालक को दूसरी मंजिल पर बंद कर दिया गया. कमरे की खिड़की बाहर सड़क पर खुलती थी, नित्यप्रति की भांति साधु-संतों की मण्डली आयी, “भिक्षाम दे ही मातरम”. की आवाज़ लगाई. परंतु होनहार नरेंद्र न दिख पड़ा, ऊपर के कमरे में बंद नरेंद्र व्याकुल हो उठा खिड़की से झांक कर देखा साधुओं के शरीर पर कोई उत्तरीय तक ना था. बालक सिहर उठा, झट उसने कहा, स्वामी जी रुकिए! साधुओं ने उसे देखा, उनका चेहरा खिल उठा, स्नेहाशीष में उनका हाथ उठ गया! बालक विद्युत की गति से कमरे के अंदर गया, वहां पिताजी के वस्त्र खूंटी पर टंगे थे, एक-एक करके उसने वहीं से नीचे गिरा कर दान कर दिए!साधुओं को क्या पता था कि उन लोगों से दूर करने के लिए उसे ताले में बंद किया गया था. वे अगणित आशीर्वाद देकर चले गए. पता चलने पर उसे पिताजी के सामने उपस्थित किया गया, उन्होंने डांटकर पूछा तुमने यह कपड़े क्यों दे डाले? बालोचित सरलता में वह बोल उठा, पिताजी उनके शरीर पर कपड़े ना थे, ठंड के दिन हैं, और इन्हें भी तो ठंड लगती होगी, इसलिए मैंने उन्हें दान में दी दिए.

आप ही ने तो कहा था कि हमें उनकी सहायता अवश्य करनी चाहिए. पिता को पुरानी घटना याद हो आयी, क्रोध भाग गया, उनकी आंखें सजल हो गई. बड़ी देर तक वे पुत्र के सिर पर स्नेहिल हाथ फेरते रहे. बालक नरेंद्र की सहृदयता निखरने लगी थी!

Author: राणा प्रताप सिंह

Source: स्वामी विवेकानंद प्रेरक जीवन प्रसंग Volume 1, page 9

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