अज्ञश्चा
Subhashita
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मन:
अर्थ :
विवेकहीन और श्रद्धा रहित संशय आत्मा मनुष्य का पतन हो जाता है। ऐसे संशयात्मा मनुष्य के लिए ना तो यह लोक हितकारक है ना परलोक हितकारक है, और ना सुख है।
भावार्थ :
विवेक और श्रद्धा की आवश्यकता सभी साधनों में है संशयात्मा मनुष्य में विवेक और श्रद्धा नहीं होते अर्थात ना तो वह खुद जानता है और ना दूसरे की बात मानता है ऐसे मनुष्य का पारमार्थिक मार्ग से पतन हो जाता है। उसका यह लोग भी बिगड़ जाता है और परलोक भी। (स्वामी रामसुखदास जी)
पांडित्य तो प्रायः उलझाने का कार्य करता है, शंकाओं को बढ़ाता है जिससे साधक किंकर्तव्यविमूढ़ सा बन जाता है। वह सोचता है कि यह ठीक है या वह ठीक है। बस जहां संशय उत्पन्न हुआ साधना समाप्त हो जाती है। साधक का यही लक्ष्य सा बन जाता है कि शंका बना बना कर लोगों में प्रतिष्ठा प्राप्त की जाए। (कृपालु जी)
IAST transliteration
ajñaścāśraddadhānaśca saṃśayātmā vinaśyati
nāyaṃ loko'sti na paro na sukhaṃ saṃśayātmana:
English meaning
The ignorant man who has not faith, the soul of doubt goeth to predition; neither this world, nor the supreme world, nor any happiness is for the soul full of doubts. (Sri Aurobindo)
Source
Gita 4, 40